राजा यवराज विशाला नगरी के राजा थे
| उनके एक पुत्र गर्धपिल्ल तथा एक पुत्री अनुल्लिका थी | यवराज को अपनी बढ़ती उम्र
देख कर संसार से विरक्ति हो गई और उन्हने सन्यास लेने का निश्चय किया | उनके
मंत्रियों ने उन्हें बहुत समझाया की राजकुमार अभी छोटे हैं तथा उनके राज्य सँभालने
लायक हो जाने तक राजा को रुकना चाहिए , परन्तु उनके वैराग्य के सामने किसी की नहीं
चली तथा उन्होंने राज्य महामंत्री दिर्घप्र्ष्ट के भरोसे छोड़ कर एक सद्गुरु से
दीक्षा ले ली तथा अपने गुरु के साथ साधु जीवन बिताने लगे |
समय व्यतीत होने लगा| यवराज मुनि संयम, साधना तथा वैराग्य में तो
बहुत आगे थे परन्तु जब भी स्वाध्याय की बात आती तो अपनी ढलती उम्र देख कर
निरुत्साहित हो जाते | उनके गुरु ने उनको बहुत समझाया की सीखने की कोई उम्र नहीं
होती तथा सीखा हुआ सदैव काम आता है परन्तु यवराज हमेशा यही कहते की “ अब बुढ़ापे में बुद्धि पक गई है तथा कुछ याद
नहीं रहता , क्या करूँ ?”
गुरु ने यवराज को स्वाध्याय में
रूचि जगाने के लिए एक मार्ग सोचा | उन्होंने यवराज से कहा की तुम अपनी विशाला नगरी
जाओ तथा वहां के नागरिकों तथा राजपरिवार को प्रवचन दो | अपने गुरु की आज्ञा मान कर
वो विशाला नगरी की तरफ चल दिए , परन्तु मन में सोच रहे थे की वहां जाके प्रवचन
क्या दूंगा , मुझे तो कुछ आता ही नहीं ? यही सोचते सोचते वो एक वृक्ष की छाया में
बैठ कर विश्राम करने लगे की तभी उन्होंने एक दृश्य देखा , पास में ही एक जौ का खेत
था जहाँ फसल पक चुकी थी तथा उस पकी हुई फसल को देख कर एक गधे के मुंह में पानी आ
रहा था , वो बार बार खेत में जाने की कोशिश करता परन्तु उस खेत का मालिक हाथ में
डंडा लेकर खड़ा उसे गुसने नहीं दे रहा था, गधे को बार बार घुसने का प्रयास करते देख
उस खेत का मालिक गुनगुनाने लगा ,
“ओहावसी पहावसी , ममं चेव
निरक्ख्सी |
लक्खियो ते अभिप्पाओ , जवं भक्खेसी गध्हा |”
लक्खियो ते अभिप्पाओ , जवं भक्खेसी गध्हा |”
अर्थात “ हे गर्धभ ! तू इधर उधर
क्यों घूम रहा है ? आगे बढता है, फिर पीछे हट जाता है | मुझे ही देख रहा है न? यव
(जौ) खाने का तेरा विचार है – मैं समझ गया |”
यवराज को ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी
लगी और उसने मन में सोचा की चलो ये ही पंक्तियाँ याद कर लेता हूँ, पहले दिन के
उपदेश में काम आ जाएगी | ये सोच कर उसने पंक्तियाँ याद करने लगे | यवराज मुनि गाथा
याद कर आगे बढ़ चले |
चलते हुए यवराज मुनि एक गाँव में पंहुचे,
वहां कुछ बच्चे गिल्ली डंडा खेल रहे थे | मुनि ने देखा की खेलते खेलते गिल्ली बहुत
दूर गढ्ढे में जा गिरी और बच्चे उसे ढूंढने लगे, बहुत ढूंढने पर भी जब गिल्ली नहीं
मिली तो एक चतुर बालक ने कहा ,
“इओ गया , तओ गया , जोइज्ज्ती न
दिसई |
अम्हे न दिट्ठा, तुम्हे न दिट्ठा, अगड़े छूड़ा अनुल्लिया |”
अम्हे न दिट्ठा, तुम्हे न दिट्ठा, अगड़े छूड़ा अनुल्लिया |”
अर्थात “ इधर से गई, उधर से गई |
देखने पर भी कहीं दिखाई नहीं दे रही है | न हमने देखी है न तुमने देखी है, मालूम
होता है, वह गढ्ढे में पड़ी है |”
यवराज मुनि ने जब यह सुना तो सोचा
की चलो दुसरे दिन का भी प्रबंध हो गया | अभी ये भी याद कर लेता हूँ | दो दिनों के
उपदेश की तैयारी कर मुनि आगे बढ़ चले |
पद यात्रा करते करते मुनि जब तक
विशाला नगरी पंहुचे तब तक शाम हो चुकी थी तो मुनि ने नगर के बाहर एक कुम्हार के घर
पर ही रात बिताने का निश्चय किया | रात में मुनि एक चबूतरे पर बैठे थे, तभी
उन्होंने देखा की जहाँ पे कुम्हार बैठा था उसके आस पास से एक चूहा बार बार इधर उधर
मज़े से दौड़ रहा था पर जैसे ही कुम्हार थोड़ा हिलता चूहा मारे डर के भाग जाता और बिल
में छुप जाता | चूहे की इस हरकत को बार बार देख कर कुम्हार के मन में दया आ गई और
उसने कहा ,
“सुकुमालग भद्द्ल्या, रतिं
हृडणसीलया |
मम पासओ नत्थि ते भयं, दीहपिट्ठाओ ते भयं |”
मम पासओ नत्थि ते भयं, दीहपिट्ठाओ ते भयं |”
अर्थात “ हे सुकुमार भद्र मूषक !
मुझे मालूम है – रात के इस अँधेरे में घूमना तेरा स्वभाव है | तो भाई, आनंद से
घुमो फिरो | मुझसे क्यूँ डर रहे हो ? तुम्हे मुझसे कोई भय नहीं है, भय तो
दिर्घप्र्ष्ट (साँप) से है |”
मुनि ने कुम्हार के मुंह से यह
गाथा सुनी और याद कर ली | अब मुनि रात में बैठे बैठे ये तीनों गाथाएँ दुहरा कर याद
कर रहे थे |
इधर विशाला नगरी में इन वर्षों में
बहुत परिवर्तन आ गया था, राजकुमार गर्धप्ल्ल अब बड़े हो गए थे और राज काज स्वयं
सँभालने लगे थे, परन्तु महामंत्री दिर्घप्र्ष्ट अपने आप को राजा से बड़ा समझता था
और राज-काज में बहुत हस्तक्षेप करता था| गर्द्पिल्ल को यह सब अब अच्छा नहीं लगता
था| इस प्रकार युवा राजा और वृद्ध महामंत्री के बीच मानसिक तनाव बढता जा रहा था ,
हालाँकि ऊपर से सब कुछ सही नज़र आ रहा था पर भीतर हालात बहुत बिगड़ चुके थे|
महामंत्री भी राजनीति का शातिर खिलाड़ी था, वो गर्धपिल्ल को हटा कर अपने पुत्र को
राजा बनाना चाहता था और उसकी शादी राजकुमारी अनुल्लिका से करवाना चाहता था | एक
दिन मौका पाकर उसने राजकुमारी को अगवा करवाकर अपने महल के तहखाने में बंद करवा
दिया | राजा ने अपनी बहन की बहुत खोजबीन करवाई पर वो कहीं नहीं मिली | राजा इससे
बहुत दुखी रहता था |
जब विशाला राज्य में ये समाचार पहुंचा
के यवराज मुनि नगरी में पधारे हैं तो महामंत्री बड़ा चिन्तित हुआ, उसने सोचा की
मुनि ने कहीं अपने ज्ञान से मेरा भांडा फोड़ दिया तो में कहीं का नहीं रहूँगा,
इसलिए इस रोड़े को आज रात ही ठिकाने लगाना होगा, पर कैसे ? यही सोचते सोचते उसके मन
में एक युक्ति आई, उसने सोचा क्यों न पुत्र के हाथों पिता की हत्या करवा दी जाए |
यही सोच कर वो गर्धपिल्ल के पास पहुंचा|
महामंत्री ने राजा से कहा “ महाराज
! आपके पिता जिन्होंने सब कुछ त्याग कर दीक्षा ले ली थी , वे अब पथभ्रष्ट हो कर
वापस आपका राज्य हड़पने आये हैं | वे आपको राज्यगद्दी से हटा कर स्वयं बैठ जाएँगे
तब आप सोचिये आपके शोर्य तथा पराक्रम का क्या मूल्य रह जाएगा | शोर्यहीन क्षत्रिय
तो मृत सामान होता है | तो राजन ! अब आप सोचिये की क्या किया जाय | मेरे विचार में
इस समस्या से आज रात ही निपटना होगा अन्यथा कल अगर वो राज्य में आ गए तो गद्दी न
देने पर वे राज्य में विद्रोह भी फैला सकते हैं |”
राजा को पहले तो विश्वास नहीं हुआ,
परन्तु उस मंत्री का कपट और ढोंग इतना गूढ था की अंत में राजकुमार बहक गया और अंत
में बोला “ महामंत्री ! अब आप ही बताइए क्या करना चाहिए |”
मंत्री बोला “ महाराज ! राज्यसत्ता
हड़पने वाला चाहे पिता हो, भाई हो या पुत्र हो, वो राज्य शत्रु है तथा राज्य शत्रु
के लिए एक ही दंड है , मृत्युदंड | तो हे राजन ! आपके पास दो मार्ग है , या तो आप
राज्य त्याग कर अपने पिता को सब कुछ सुपुर्द कर सन्यास ले लीजिये या फिर उनको
मृत्यु दंड दीजिये |”
राजा असमंजस में था, परन्तु अंत
में राज्य के लालच में उसने अपने पिता की हत्या करने का फैसला किया और अपनी तलवार
लेकर चुपके से कुम्हार के घर पंहुचा | राजा तलवार लेकर पंहुच तो गया परन्तु अपने
पिता तथा एक मुनि की हत्या करने का वो साहस नहीं जुटा पा रहा था, साहस कर कुछ आगे
बढता परन्तु संकोचवष वापस पीछे हट जाता | अपने पिता के कक्ष में बने एक छिद्र से
वह बार बार उनको देख रहा था |
यवराज मुनि उस समय अपने कक्ष में
पहली गाथा का अभ्यास कर रहे थे, वे उच्च स्वर में बोले
“ओहावसी पहावसी , ममं चेव
निरक्ख्सी |
लक्खियो ते अभिप्पाओ , जवं भक्खेसी गध्हा |”
लक्खियो ते अभिप्पाओ , जवं भक्खेसी गध्हा |”
राजा के कानो में जब ये शब्द पड़े
तो उसने इनका अभिप्राय इस प्रकार समझा , “हे गधहा (गर्ध्पिल्ल) ! तू इधर उधर क्यों
घूम रहा है ? आगे बढता है, फिर पीछे हट जाता है | मुझे ही देख रहा है न? यव
(यवराज) खाने का तेरा विचार है – मैं समझ गया |”
यह सुनते ही राजा डर गया और उसने
सोचा शायद मुनि ने अपने ज्ञान से यह जान लिया है की में यहाँ किस प्रयोजन से आया
हुआ हूँ |
तभी मुनि ने दूसरी गाथा गई, उसका
अभिप्राय राजा ने इस प्रकार से निकला, “इधर से गई, उधर से गई | देखने पर भी कहीं
दिखाई नहीं दे रही है | न हमने देखी है न तुमने देखी है, मालूम होता है, अनुल्लिया
गढ्ढे (तहखाने) में पड़ी है |”
यह सुनकर राजा को लगा की मुनि
सचमुच बड़े ज्ञानी हैं तथा उन्होंने ये भी जान लिया की मेरी बहिन कहा पर है| परन्तु
फिर भी इनके होते हुए मुझे हमेशा राज्य खो जाने का भय रहेगा, तो अब क्या किया जाए
? वो ये सोच ही रहा था की तीसरी गाथा उसके कानो में पड़ी, जिसका अर्थ उसने ऐसे समझा
“हे सुकुमार ! मुझे मालूम है – रात के इस अँधेरे में घूमना तेरा स्वभाव है | तो
भाई, आनंद से घुमो फिरो | मुझसे क्यूँ डर रहे हो ? तुम्हे मुझसे कोई भय नहीं है,
भय तो दिर्घ्प्रिष्ट (महामंत्री) से है |”
ये सुनते ही राजा से रहा नहीं गया
और वो अपने पिता मुनि यवराज के चरणों में गिर पड़ा | आँखों में आंसू तथा हाथ में
नंगी तलवार लिए राजा को देख कर मुनि पूरा माजरा समझ गए| राजा ने मुनि को सब कुछ
बताया तथा मुनि से क्षमा मांगी, मुनि तो क्षमा की मूर्ति होते हैं उन्होंने तो
बिना मांगे ही राजा को क्षमा कर दिया था|
राजा ने वापस राज्य में जाकर
महामंत्री के महल को सशत्र सैनिकों से गैर लिया और उनके महल के तहखाने की तलाशी ली
जिसमे उनको अपनी बहिन मिल गई जिसे पाकर वो अत्यंत प्रसन्न हुआ | उसने मंत्री को
गिरफ्तार कर राज्य से निष्कासित कर दिया तथा अपनी बहन व सभी नागरिकों के साथ मुनि
के दर्शनों को चला | मुनि सबको उपदेश देकर वापस अपने गुरु के पास जाने लगे और जाते
जाते उनके मन में ये विचार आए “राज्य की लालसा इंसान को कितना गिरा देती है की वो
अपने पिता की हत्या करने में भी नहीं हिचकता | साथ ही उन्होंने स्वाध्याय का महत्व
भी समझ लिया की जब केवल तीन सामान्य गाथाओं ने न केवल उनके प्राण बचाए बल्कि उनके
पुत्र, पुत्री तथा राज्य की रक्षा की तो महान गुरुजनों की सेवा में स्वाध्याय करने
का कितना फल मिलेगा ? इसके बाद उन्होंने निश्चय किया की वे बिना प्रमाद के
प्रतिदिन स्वाध्याय करंगे |”
उनके गुरु अपने शिष्य में
ये परिवर्तन देख कर बहुत प्रसन्न हुए ||