मगध की राजधानी राजगृही के बाहर मण्डित-कुक्षी नामक एक बड़ा
ही सुन्दर उपवन था| एक बार मगध के महाराज श्रेणिक उस उपवन में घुमने गए| घूमते हुए
रास्ते में उन्होंने देखा की एक वृक्ष के नीचे एक तरुण मुनि ध्यान में खड़े हैं,
ललाट पर अद्भुत तेज तथा प्रतिमा के समान बिल्कुल स्थिर शरीर देखकर राजा बहुत
प्रभावित हुए, और वह सहज ही मुनि के सामने करबद्ध हो कर खड़े हो गए|
जब मुनि ने ध्यान खोला तो उन्होंने राजा को अपने सामने पाया
| राजा ने नम्रतापूर्वक मुनि से कहा “हे मुने ! भोग की इस आयु में आप योग के मार्ग
पर कैसे आ गए | अभी तो आपके जीवन के सभी आनंद उठाने का समय है, इस आयु में आप
विरक्ति के मार्ग पर कैसे आ गए ?”
मुनि बोले “ राजन ! मैं अनाथ था, मेरा कोई सहारा नहीं था, इसलिए
मैं भिक्षु बन गया|”
यह सुनकर राजा को दया आ गई और वे मुनि से बोले “ आज से आप
अनाथ नहीं हो, मैं मगध नरेश आपका नाथ हूँ | आप मेरे साथ मेरे राजमहल चलिए तथा जीवन
के सभी सुखों का भोग करिए | ये भिक्षुक जीवन अब आपके लिए नहीं है |”
यह सुनकर मुनि केवल इतना बोले की जो व्यक्ति स्वयं अनाथ हो
वो किसी और का नाथ कैसे बन सकता है |
यह शब्द सुनकर राजा बहुत अचम्भित हुआ और मन में सोचने लगा
की शायद यह युवा भिक्षुक मुझे ठीक तरह से जानता नहीं है, इसलिए ऐसी बात कर रहा है,
मुझे इसे अपना परिचय देना चाहिए | यह सोच राजा बोले “हे मुनि! शायद आपने मुझे
पहचाना नहीं, मैं मगध नरेश श्रेणिक हूँ, जिसके नाम से बड़े बड़े राजे महाराजे कांपते
हैं, जिसके राज्य में वैभव तथा धन संपदा के अखूट भण्डार हैं, गगन चुम्बी महल हैं,
जिसके पास हजारों की संख्या में अश्व, हाथी व वीर सैनिक हैं, जिसका राजदरबार महान वीर
योद्धाओं से भरा हुआ है, जिसका अंत:पुर रानियों व परिवारजनों से भरा हुआ है, उसको आप
अनाथ कह रहे हैं ? मुझे पहचानिए मुनिवर, तथा चलिए मेरे साथ, आपका मेरे राजमहल में
भव्य स्वागत होगा, सैकड़ों दास-दासियाँ आपकी सेवा में उपस्थित रहेंगे| आपको प्रसन्न
रखने के लिए अप्सराओं के सामान सुन्दर युवतियां रहेंगी|”
यह सुन मुनि बोले “ महाराज ! मैं आपको तथा आपके सम्पूर्ण
वैभव को जानता हूँ, पर क्या जिस वैभव तथा ऐश्वर्य पर आपको इतना भरोसा है वो संकट
पड़ने पर आपके काम आ सकेगा? क्यों की ये सब मेरे किसी काम न आ सका | मैं कौशाम्बी
के नगर श्रेष्ठी का पुत्र था | मेरे माता, पिता, भाई, बहिन आदि का मुझ पर अपार
स्नेह था, धन वैभव के अम्बार लगे थे, सैकड़ों सेवक सेविकाएं मेरी सेवा में उपस्थित
रहती थी| परम सुन्दर, गुणवान तथा शीलवान मेरी पत्नी थी जो मुझसे अथाह प्रेम करती
थी | भोग विलास के सारे साधन मेरे पास उपलब्ध थे |”
“तो फिर आप अपने आप को अनाथ क्यों कह रहे हैं, और क्या कारण
है की इस आयु में सब कुछ छोड़ कर आपने वैराग्य स्वीकार कर लिया” राजा ने आश्चर्यचकित
होते हुए पुछा |
मुनि बोले “राजन ! एक बार मेरी आँखों में भयंकर दर्द शुरू
हो गया | अनेक वैध आये, कई औषधियां लीं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा | मैं वेदना से छटपटाता
रहा | मेरे पिता धन पानी की तरह बहा रहे थे की कैसे भी मेरे पुत्र की पीड़ा शांत हो
जाए | मेरी माता दिन रात मेरे पास बैठी रहती, अनेक देवी देवताओं से मन्नतें
मांगतीं, प्यार से मेरे सर पर हाथ फिराती, पर मेरी पीड़ा में कोई कमी नहीं आई| मेरी
भाई-बहिन सभी हाथ बांधे खड़े रहते, तंत्र मंत्र सब कुछ करवाए पर पीड़ा कम होने के
बजाय बढती रही | मेरी पत्नी दिन रात मेरे लिए आंसू बहाती, पर मेरे स्वास्थ्य पर
कोई असर नहीं हुआ |”
मुनि की असहाय अवस्था को सुनकर राजा स्वयं अपने को भी असहाय
महसूस करने लगे |
मुनि आगे बोले “ पीड़ा से तड़पते हुए एक दिन मेरे मन में ये
विचार आया की यह जीवन कितना असहाय है, मनुष्य अपने सुख के लिये बड़े बड़े महल बनवाता
है, संसार से नये नये रिश्ते नाते जोड़ता है, माता-पिता, भाई-बहिन तथा पत्नी और
बच्चों की ममता में डूबकर स्वयं अपने को भूल जाता है| सोचता है की ये सब मेरे सुख
दुःख के साथी हैं, परन्तु जब दुःख तथा पीड़ा आती है तो कोई काम नहीं आता| अपने किये
कर्मों का फल तो खुद को ही भोगना पड़ता है, उसे बचाने वाला तथा दर्द को बांटने वाला
कोई नहीं | इसलिए मेरा कोई नाथ नहीं, मैं तो इस संसार में अकेला हूँ, अनाथ हूँ|
मनुष्य तो स्वयं ही स्वयं का नाथ होता है, आत्मा ही आत्मा की रक्षक है | व्यक्ति
स्वयं ही अपना मित्र है तथा स्वयं ही अपना शत्रु है, बाहर के रिश्ते नाते तथा वैभव
में कुछ भी खोजना व्यर्थ है |
यह सब विचार करते करते मुझे अद्भुत शांति मिलने लगी, बहुत
दिनों बाद मेरी आँखों में कुछ आराम आया और कुछ ही देर में मैं शांति से सो गया|
मुझे इतने दिनों बाद शांति से सोया देख मेरे परिवारजन बहुत प्रसन्न हुए | प्रात:
जब मैं उठा तो पूरी तरह से ठीक हो गया था| मेरा मन व शरीर पूरी तरह से शांत थे |
मुझे आगे का मार्ग दिखाई दे रहा था| माता पिता की ममता तथा पत्नी का स्नेह भी मुझे
रोक नहीं पाया और मैं भौतिक सुख सुविधाएँ तथा रिश्ते नाते सब छोड़ कर मुनिव्रत धारण
कर लिया और अब मैं पूर्ण शांत हूँ, अब मैं अपना नाथ स्वयं हूँ, खुद ही खुद का
सहारा हूँ|”
राजा श्रेणिक ने पहली बार जीवन की इस अनाथता को समझा | उनके भौतिक वैभव का गर्व पिघल गया| उनको संसार की निस्सारता तथा असहायता का अनुभव हुआ | श्रेणिक को आज सच्ची नाथता के दर्शन हुए, वे श्रद्धा से मुनि के चरणों में झुक गए|