तीनों पुत्र धन लेकर व्यापार करने दुसरे शहर की ओर चल दिये| अपने गाँव से कुछ दूर पँहुचकर वह एक जगह रुके और आपस में सलाह की कि यहाँ से तीन दिशाओं में रास्ते जाते हैं, हम तीनों को अपना भाग्य आजमाने अलग अलग रास्तों पर जाना चाहिए|
सबसे बड़ा पुत्र देवदत्त दक्षिण दिशा की ओर चल दिया, कुछ दूर चलने के बाद वो एक नगर में पँहुचा| उसने सोचा की मेरे पास धन है, पहले ज़िन्दगी का कुछ मज़ा ले लूँ , बाद में धन भी कमा लूँगा| ऐसा सोचकर देवदत्त ने अपना धन आमोद प्रमोद व मौज शौक में उड़ाना चालू कर दिया| धीरे धीरे उसकी सारी जमा पूँजी ख़त्म हो गई और वह कंगाल हो गया|
दूसरा पुत्र शिवदत्त पश्चिम दिशा के रास्ते पर चलते चलते एक गाँव में जा पँहुचा| उसने सोचा की यह गाँव बहुत सुन्दर और शांत है अत: मुझे यहीं रहना चाहिए| यह सोचकर शिवदत्त ने वहीँ एक दुकान खोल ली और गाँव वालों को पैसे ब्याज पर देने लगा| ब्याज के पैसों की आमदनी से वह सुखपूर्वक रहने लगा|
तीसरा पुत्र जिनदत्त बड़ा ही चतुर था| उसने रास्ते में ही एक किसान से एक गाड़ी अनाज नकद पैसे देकर सस्ते भाव में खरीद लिया| उसने किसान से कहा "भाई !इस अनाज को शहर तक पँहुचा दो| भाडा और खर्चा भी दे दूंगा"
किसान ने अनाज से भरी बैलगाड़ी शहर की अनाज मंडी में पँहुचा दी| वहाँ जिनदत्त ने व्यापारियों से बात की और उसका अनाज हाथों हाथ दुगुने दामों में बिक गया| उसने सोचा इस धंधे में तो बहुत मुनाफा है, मुझे यहाँ रहकर यही व्यापार करना चाहिए| कुछ ही दिनों में जिनदत्त ने उसी नगर में अनाज की एक बड़ी दुकान कर ली| वह गाँव से सस्ते दामों पर अनाज लाकर शहर में बेचता था| इस धंधे में उसे खूब मुनाफा हुआ और उसकी पूँजी कई गुना हो गई|
दो वर्ष पश्चात तीनों भाई अपने घर वापस आए| पिता मेघदत्त अपने पुत्रों को सकुशल वापस आया देख बहुत प्रसन्न हुआ और उनको अपने पास बुलाकर कहा "पुत्रों ! मैंने तुम्हें व्यापार के लिए एक हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ दी थी, वह मुझे वापस कर दो और तुमने क्या कमाया है मुझे बताओ?"
यह सुन देवदत्त अपनी फटेहाली और दुर्दशा पर रोने लगा और कहा " पिताजी! मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं बची है| जो था वो सब खो दिया है|"
दुसरे पुत्र शिवदत्त ने कहा "पिताजी! मैंने ब्याज के पैसों से अपना खर्च चलाया और मूल पूँजी सुरक्षित वापस ले आया हूँ|"
जिनदत्त ने बहुत सारा धन, हाथी घोड़े और अनाज की गाड़ियाँ पिता को भेंट की और बोला "लीजिये पिताजी! मैं आपके लिए यह बीस हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ और आभूषण लाया हूँ| यह सब मैंने उसी एक हज़ार स्वर्ण मुद्राओं से कमाया है|"
यह सुनकर उसका पिता बहुत प्रसन्न हुआ और सोचने लगा कि इस संसार में कुछ मनुष्य अपनी बुद्धिमानी से स्वयं की, समाज की तथा राष्ट्र की सुख समृद्धि को विस्तार देते हैं, कुछ केवल रखवाले होते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो कुछ भी उनको मिलता हैं उसको भी व्यर्थ कर देते हैं|