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क्रोध और विवेक

एक बार शीत ऋतु में राजा श्रेणिक अपनी पत्नी चेलना के साथ भगवान महावीर के दर्शन कर वापस महल की तरफ लौट रहे थे| रास्ते में एक नदी के किनारे उन्होंने एक मुनि को ध्यान में लीन देखा| उन्हें देख कर रानी ने सोचा, धन्य हैं ये मुनि जो इतनी भयंकर सर्दी में भी निर्वस्त्र ध्यान कर रहे हैं मुझे तो इतने कम्बल पहनने के बाद भी ठण्ड के मारे कंपकंपी छुट रही है| यह सोच कर राजा व रानी श्रद्धा पूर्वक उन्हें प्रणाम कर अपने महल लौट आये| रानी के मन में उन मुनि की बात घर कर गई, जब भी उनको भयंकर ठण्ड का अनुभव होता, श्रद्धा से उनका सर मुनि के चरणों में झुक जाता|
रात्रि में रानी अपने कक्ष में बहुत से कम्बल अच्छे से ओड़ कर सो रही थी, नींद में उनका एक हाथ कम्बल से बाहर चला गया, जब उनकी आँख खुली तो उन्होंने देखा की उनका हाथ ठण्ड के मारे अकड़ गया है और अचानक उनको उन मुनि का स्मरण हो गया, और वो बोली “उनका क्या हाल हो रहा होगा”|
राजा श्रेणिक जो पास में सो रहे थे उन्होंने जब ये शब्द सुने तो उन्होंने सोचा की महारानी किसी और व्यक्ति से प्रेम करती है और अभी शायद उसी के बारे में सोच रही है| ये सोच कर उन्हें बहुत क्रोध आया| वे सोचने लगे की स्त्री जाति का कोई भरोसा नहीं, अगर मेरी पटरानी ही ऐसी है तो बाकि रानियों का क्या हाल होगा ? इनके सतीत्व पर विश्वास नहीं किया जा सकता |
अगले दिन क्रोध में भरे राजा जैसे ही महल से बाहर आए उन्हें उनका महामंत्री अभयकुमार दिखाई दिया, वे उससे बोले की तुम अंत:पुर को रानियों समेत जला कर भस्म कर दो| इतना कह कर महाराज वहां से चले गए| अभयकुमार बुद्धिमान व्यक्ति था, उसे पता था की क्रोध विवेक का  नाश कर देता है तथा गुस्से में किये गए काम पर बाद में पछताना भी पड़ सकता है | इसलिए उन्होंने महल के पास बने गजशाला को खाली करवा कर उसमे आग लगवा दी, जिससे कोई अनर्थ भी न हो और महाराज की आज्ञा का उल्लंघन भी नहीं हो|
उधर आज्ञा देकर महाराज जंगल में घुमने चले गए लेकिन उनके मन को शांति नहीं मिल रही थी तो वो अपने मन के प्रश्नों का हल ढूंढने भगवान महावीर के पास पंहुचे| भगवान को प्रणाम कर उन्होंने पूछा की “भगवन ! वैशाली गणराज्य के राजा चेटक की पुत्री के एक पति है या अनेक पति”
तब महावीर बोले “ राजन ! चेटक की एक क्या सातों ही पुत्रियों के एक ही पति है| तुम्हारे अंत:पुर की सभी रानियाँ पवित्र पति धर्म का पालन करने वाली है|”
श्रेणिक को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर महावीर बोले “ राजन ! कल तुमने अपनी पत्नी चेलना के साथ नदी के तट पर एक मुनि के दर्शन किये थे?”
“हाँ प्रभु ! किये थे “ श्रेणिक बोले
तब महावीर ने रात में हुई घटना को बताते हुए कहा “जिसे तुम अपनी रानी का किसी पुरुष के लिए स्नेह समझ रहे थे वो तो असल में उन मुनि के लिए पीड़ा का अनुभव था”
इतना सुनते ही श्रेणिक के पावों तले ज़मीन खिसक गई| वह उलटे पाँव भागते हुए वापस अपने महल पंहुचे, परन्तु महल की तरफ से उठती हुई लपटों को देख कर उनका दिल बैठ गया | वे मन ही मन अपने आप को कोस रहे थे की सर्वनाश हो गया ! स्त्री हत्या वो भी निरपराध ! महान पाप हो गया|
तभी राजा को सामने से आता हुआ अभयकुमार दिखाई दिया| राजा ने क्रुद्ध होकर उससे कहा “ अभय ! आज तेरी बुद्धि को क्या हो गया था | कितना भयंकर पाप किया | निरपराध अबलाओं का अग्निदाह करवा दिया | जा मेरी नज़रों से दूर हो जा |"
यह सुनते ही अभयकुमार को मानो मन मांगी मुराद मिल गई | अभयकुमार तो कबसे सब कुछ त्याग कर दीक्षित होना चाहता था परन्तु राजा श्रेणिक उसे नहीं छोड़ते थे, आज राजा की आज्ञा मिलते ही वो तुरंत वहां से निकल कर भगवान महावीर की शरण में पंहुच गया |

इधर जब राजा को अपने महल पंहुच कर जब सच्चाई का पता चला तो मन ही मन उन्हें अभय की सूझ बुझ तथा विवेक पर बहुत प्रसन्नता हुई , साथ ही अपनी मुर्खता, वहम तथा उतावलेपन पर उन्हें बहुत लज्जा आई | उन्होंने मन में सोचा “मेरे वहम तथा अविवेक से कितनी बड़ी दुर्घटना घट जाती, सच मुच क्रोध आँख वाले को भी अँधा बना देता है “|