एक समय की बात है| मथुरा नरेश राजा शंख को संसार से विरक्ति हो गई| उन्होंने अपना राज्य त्याग कर दीक्षा ले ली और उग्र ताप करने लगे| ताप के प्रभाव से उन्हें अनेक विशिष्ट लाब्धियाँ प्राप्त हो गई|
ग्रामानुग्राम घूमते हुए वे हस्तिनापुर पधारे| भिक्षा के लिए नगर की ओर निकले| नगर प्रवेश के दो मार्ग थे| दो मार्गों को देख कर मुनि विचार में पड़ गए| उन्होंने इधर उधर देखा तो एक आदमी अपने घर के बाहर बैठा था| मुनि ने उसके पास जाकर नगर में प्रवेश का मार्ग पूछा|
वह व्यक्ति ब्राह्मण सोमदत्त था| सोमदत्त को अपने ब्राह्मण होने का बहुत अभिमान था तथा वह श्रमणों से नफरत करता था| उसने मुनि को गलत मार्ग बताते हुए कहा की यह मार्ग निकट का है| आप शीघ्र ही नगर में पँहुच जाएँगे|
तपस्वी मुनि उसी मार्ग पर चल दिए|
वास्तविकता यह थी की उस मार्ग का नाम 'हुताशन' था| वह मार्ग सामान्य दिनों में भी इतना गरम रहता था की उस पर चलना कठिन था, लेकिन ग्रीष्म काल में तो वह टेप हुए तवे की भाँति जलता था|
सोमदत्त ने शंख मुनि को वह मार्ग अपनी मुनियों की घृणा की वजह से बताया था, लेकिन जब उसने देखा की मुनि तो शांतिपूर्वक उस पर चले जा रहे हैं तो वह चकित हो गया| उसने स्वयं उस मार्ग पर चल कर देखा तो उसे पता चला की मार्ग तो एकदम शीतल हो गया है| वह समझ गया की ये मुनि तो विशिष्ट लब्धिधारी हैं, तथा इनके तप के प्रभाव से मार्ग शीतल हो गया है|
चमत्कार को नमस्कार करता हुआ ब्राह्मण सोमदत्त शीघ्र ही शंख मुनि के पास पँहुचा और अपने अपराध की क्षमा मांगने लगा|
जैन श्रमण तो क्षमावीर होते ही हैं, उन्होंने सोमदत्त को क्षमा कर दिया| साथ ही सोमदत्त की जिज्ञासा पे धर्म का उपदेश भी दिया| उपदेश से प्रतिबुद्ध होकर सोमदत्त दीक्षित हो गया और तपस्या करने लगा, लेकिन अपनी जाती का अभिमान उसमें वैसा ही बना रहा| अपने अंत समय तक भी वह जाती अहंकार के चंगुल से नहीं छुट पाया| मृत्यु के पश्चात वह देवलोक में देव बना|
देव आयु पूर्ण करके सोमदत्त का जीव मृतगंगा के किनारे हरिकेश गोत्र के चांडालों के अधिपति "बलकोट्ट" नामक चांडाल की पत्नी गौरी के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ| उसका नाम बल रखा गया|
यही बालक आगे चलकर हरिकेशबल कहलाया|
पूर्व जन्म में किये गए जाति अहंकार के कारण उसका जन्म चांडालकुल में हुआ तथा उसका शरीर भी काला कलूटा, बेडौल और कुरूप था| ज्यों ज्यों वह बड़ा हुआ उसके स्वभाव में उग्रता बढती गई| वह क्रोधी, झगडालू और कटुभाषी बन गया| शरीर की कुरूपता और स्वभाव की उग्रता से तो उस पर करेला और उस पर नीम चढ़ा वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी| वह बस्ती के सभी लोगों, बालकों और यहाँ तक की अपने माता पिता की आँखों में भी खटकने लगा|
एक बार बस्ती के लोग उद्यान में बसंत उत्सव मना रहे थे| बालक खेल रहे थे| हरिकेशबल ने भी उनके साथ खेलने का प्रयत्न किया तो खेल में किसी बात पर क्रुद्ध होकर वह अपशब्द बोलने लगा, गाली बकने लगा तो अन्य बालकों ने उसे निकाल दिया और वो उपेक्षित सा होकर एक जगह बैठ गया|
सभी लोग खुशियाँ मना रहे थे और हरिकेशबल उन्हें दूर बैठा घूर रहा था|
तभी एक विषधर सर्प वहाँ से निकला| लोगों ने उसे बैंत लाठियों से पीट कर मार डाला| कुछ समय बाद वहीँ से एक विषहीन सर्प निकला तो उसे देखकर लोगों ने कहा की ये तो विषहीन सर्प है इसे मारने से क्या लाभ? इसे पकड़ कर दूर छोड़ आओ| और कुछ लोग उस विषहीन सर्प को दूर छोड़ आए और पुन: क्रीडा में मग्न हो गए|
हरिकेशबल इस घटना को देख रहा था| उसका विचार प्रवाह बहने लगा की प्राणी अपने ही दोषों के कारण दुःख पाटा है, समाज का तिरस्कार सहता है| लोगों ने विषधर सर्प को मार दिया और विषहीन को नहीं मारा| मैं अपनी कडवी जुबान और दुर्व्यवहार के कारण उपेक्षित हुआ हूँ, यदि इन दोषों को छोड़ दूँ तो सबका प्रिय बन जाऊँ| लेकिन मुझमें से दोष आए ही क्यों? इसका क्या कारण है? यों सोचते सोचते हरिकेशबल का चिंतन गहरा हुआ और उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया और वो अपने पूर्व के दो जन्म (सोमदत्त ब्राह्मण और स्वर्ग के देव) उसके सामने चित्र की भांति आ गए|
उसी क्षण उसे संसार और सांसारिक भोगों से विरक्ति हो गई, उसे अपने निम्न कुल में जन्म, कुरूपता तथा उग्र स्वभाव होने का कारण भी ज्ञात हो गया|
उसने फिर संसार त्याग कर किसी श्रमण से दीक्षा ग्रहण कर ली और शुद्ध मुनि धर्म का पालन करने लगा| चांडाल हरिकेशबल अब मुनि हरिकेशबल बनकर गाँव गाँव विचरने लगे| धीरे धीरे उनकी तपस्या इतनी उच्चकोटि पर पँहुच गई की देवता भी उन्हें नमन करने लगे, पूज्य और आराध्य मानने लगे तथा सेवा में तत्पर रहने लगे|
एक बार वो विचरते हुए वाराणसी में पधारे| वहाँ वह एक उद्यान में स्थित एक यक्षमंदिर में मासखामण की प्रतिज्ञा धारण कर कायोत्सर्ग में लीन हो गए| उनके उत्कट तप के प्रभाव से प्रभावित यक्षराज उन्हें अपना आराध्य मानने लगा और उनकी सेवा में तत्पर रहने लगा|
किसी दिन नगर के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा अपनी सखियों सहित यक्ष की पूजा के लिए यक्ष मंदिर में आई| यक्ष प्रतिमा की प्रदक्षिणा करते हुए उसकी नज़र वृक्ष के नीचे खड़े कायोत्सर्ग में लीं मुनि हरिकेशबल पर पड़ी| मुनि की कुरूपता, मलिन शरीर एवं वस्त्रों को देखकर राजकुमारी का ह्रदय घृणा से भर गया और उसने मुनि के मुँह पर थूक दिया|
अपने आराध्य मुनि का अपमान यक्ष सहन ना कर सका और वह तुरंत राजकुमारी भद्रा के शरीर में प्रविष्ट हो गया| यक्ष के प्रविष्ट होने से भद्रा कुछ भी बोलती और अनर्गल चेष्ठाएँ करती हुई बेहोश हो गई| उसकी सखियाँ किसी तरह से उसे राजमहल में ले गई|
राजा ने पुत्री के बहुत उपचार करवाए लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ| रजा अपनी पुत्री के जीवन के लिए चिंतित होने लगा| तब राजकुमारी के शरीर में प्रविष्ट यक्ष ने कहा, " राजन ! तुम कितने भी उपचार करवा लो, कोई लाभ नहीं होगा| इसने मेरे मंदिर में ध्यान मग्न एक मुनि का अपमान किया है, इसीलिए मैंने इसकी ये दशा की है| यदि तुम उस महामुनि के साथ इसका विवाह करो तो मैं इसे छोड़ सकता हूँ अन्यथा इसे जीवित नहीं रहने दूंगा|"
पिता ने अपनी पुत्री के प्राणों की खातिर यक्ष की शर्त स्वीकार कर ली| यक्ष राजकुमारी के शरीर से निकल गया और राजकुमारी स्वस्थ हो गई| राजा अपनी पुत्री को लेकर यक्ष के मंदिर में पँहुचा| पिता ने अपनी पुत्री के अपराध के लिए क्षमा मांगी और करबद्ध होकर प्रार्थना की, " भगवन ! इस कन्या ने आपका बहुत बड़ा अपराध किया है इसका प्रायश्चित यही है की आप इससे शादी करें और अपनी दासी के रूप में स्वीकार करें|"
मुनि हरिकेशबल ने कहा, "राजन! न तो इस कन्या ने मेरा कोई अपराध किया है और ना मेरा कोई अपमान ही हुआ है| शादी की बात तो दूर, मैं ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करने वाला हूँ| जहाँ स्त्रियों का आवागमन हो, वहाँ मैं ठहर भी नहीं सकता हूँ| तुम अपनी पुत्री को ले जाओ| मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं है|"
राजा ने कन्या को यक्ष के प्रकोप से मुक्त करने की प्रार्थना की, लेकिन मुनि मौन हो गए| तब यक्ष ने ही कहा, "मुनि तुम्हें स्वीकार नहीं करते तो तुम चली जाओ"
राजा अपनी पुत्री के साथ वापिस लौट आए और मुनि अपनी साधना में वापस प्रवृत्त हो गए|
ग्रामानुग्राम घूमते हुए वे हस्तिनापुर पधारे| भिक्षा के लिए नगर की ओर निकले| नगर प्रवेश के दो मार्ग थे| दो मार्गों को देख कर मुनि विचार में पड़ गए| उन्होंने इधर उधर देखा तो एक आदमी अपने घर के बाहर बैठा था| मुनि ने उसके पास जाकर नगर में प्रवेश का मार्ग पूछा|
वह व्यक्ति ब्राह्मण सोमदत्त था| सोमदत्त को अपने ब्राह्मण होने का बहुत अभिमान था तथा वह श्रमणों से नफरत करता था| उसने मुनि को गलत मार्ग बताते हुए कहा की यह मार्ग निकट का है| आप शीघ्र ही नगर में पँहुच जाएँगे|
तपस्वी मुनि उसी मार्ग पर चल दिए|
वास्तविकता यह थी की उस मार्ग का नाम 'हुताशन' था| वह मार्ग सामान्य दिनों में भी इतना गरम रहता था की उस पर चलना कठिन था, लेकिन ग्रीष्म काल में तो वह टेप हुए तवे की भाँति जलता था|
सोमदत्त ने शंख मुनि को वह मार्ग अपनी मुनियों की घृणा की वजह से बताया था, लेकिन जब उसने देखा की मुनि तो शांतिपूर्वक उस पर चले जा रहे हैं तो वह चकित हो गया| उसने स्वयं उस मार्ग पर चल कर देखा तो उसे पता चला की मार्ग तो एकदम शीतल हो गया है| वह समझ गया की ये मुनि तो विशिष्ट लब्धिधारी हैं, तथा इनके तप के प्रभाव से मार्ग शीतल हो गया है|
चमत्कार को नमस्कार करता हुआ ब्राह्मण सोमदत्त शीघ्र ही शंख मुनि के पास पँहुचा और अपने अपराध की क्षमा मांगने लगा|
जैन श्रमण तो क्षमावीर होते ही हैं, उन्होंने सोमदत्त को क्षमा कर दिया| साथ ही सोमदत्त की जिज्ञासा पे धर्म का उपदेश भी दिया| उपदेश से प्रतिबुद्ध होकर सोमदत्त दीक्षित हो गया और तपस्या करने लगा, लेकिन अपनी जाती का अभिमान उसमें वैसा ही बना रहा| अपने अंत समय तक भी वह जाती अहंकार के चंगुल से नहीं छुट पाया| मृत्यु के पश्चात वह देवलोक में देव बना|
देव आयु पूर्ण करके सोमदत्त का जीव मृतगंगा के किनारे हरिकेश गोत्र के चांडालों के अधिपति "बलकोट्ट" नामक चांडाल की पत्नी गौरी के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ| उसका नाम बल रखा गया|
यही बालक आगे चलकर हरिकेशबल कहलाया|
पूर्व जन्म में किये गए जाति अहंकार के कारण उसका जन्म चांडालकुल में हुआ तथा उसका शरीर भी काला कलूटा, बेडौल और कुरूप था| ज्यों ज्यों वह बड़ा हुआ उसके स्वभाव में उग्रता बढती गई| वह क्रोधी, झगडालू और कटुभाषी बन गया| शरीर की कुरूपता और स्वभाव की उग्रता से तो उस पर करेला और उस पर नीम चढ़ा वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी| वह बस्ती के सभी लोगों, बालकों और यहाँ तक की अपने माता पिता की आँखों में भी खटकने लगा|
एक बार बस्ती के लोग उद्यान में बसंत उत्सव मना रहे थे| बालक खेल रहे थे| हरिकेशबल ने भी उनके साथ खेलने का प्रयत्न किया तो खेल में किसी बात पर क्रुद्ध होकर वह अपशब्द बोलने लगा, गाली बकने लगा तो अन्य बालकों ने उसे निकाल दिया और वो उपेक्षित सा होकर एक जगह बैठ गया|
सभी लोग खुशियाँ मना रहे थे और हरिकेशबल उन्हें दूर बैठा घूर रहा था|
तभी एक विषधर सर्प वहाँ से निकला| लोगों ने उसे बैंत लाठियों से पीट कर मार डाला| कुछ समय बाद वहीँ से एक विषहीन सर्प निकला तो उसे देखकर लोगों ने कहा की ये तो विषहीन सर्प है इसे मारने से क्या लाभ? इसे पकड़ कर दूर छोड़ आओ| और कुछ लोग उस विषहीन सर्प को दूर छोड़ आए और पुन: क्रीडा में मग्न हो गए|
हरिकेशबल इस घटना को देख रहा था| उसका विचार प्रवाह बहने लगा की प्राणी अपने ही दोषों के कारण दुःख पाटा है, समाज का तिरस्कार सहता है| लोगों ने विषधर सर्प को मार दिया और विषहीन को नहीं मारा| मैं अपनी कडवी जुबान और दुर्व्यवहार के कारण उपेक्षित हुआ हूँ, यदि इन दोषों को छोड़ दूँ तो सबका प्रिय बन जाऊँ| लेकिन मुझमें से दोष आए ही क्यों? इसका क्या कारण है? यों सोचते सोचते हरिकेशबल का चिंतन गहरा हुआ और उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया और वो अपने पूर्व के दो जन्म (सोमदत्त ब्राह्मण और स्वर्ग के देव) उसके सामने चित्र की भांति आ गए|
उसी क्षण उसे संसार और सांसारिक भोगों से विरक्ति हो गई, उसे अपने निम्न कुल में जन्म, कुरूपता तथा उग्र स्वभाव होने का कारण भी ज्ञात हो गया|
उसने फिर संसार त्याग कर किसी श्रमण से दीक्षा ग्रहण कर ली और शुद्ध मुनि धर्म का पालन करने लगा| चांडाल हरिकेशबल अब मुनि हरिकेशबल बनकर गाँव गाँव विचरने लगे| धीरे धीरे उनकी तपस्या इतनी उच्चकोटि पर पँहुच गई की देवता भी उन्हें नमन करने लगे, पूज्य और आराध्य मानने लगे तथा सेवा में तत्पर रहने लगे|
एक बार वो विचरते हुए वाराणसी में पधारे| वहाँ वह एक उद्यान में स्थित एक यक्षमंदिर में मासखामण की प्रतिज्ञा धारण कर कायोत्सर्ग में लीन हो गए| उनके उत्कट तप के प्रभाव से प्रभावित यक्षराज उन्हें अपना आराध्य मानने लगा और उनकी सेवा में तत्पर रहने लगा|
किसी दिन नगर के राजा कौशलिक की पुत्री भद्रा अपनी सखियों सहित यक्ष की पूजा के लिए यक्ष मंदिर में आई| यक्ष प्रतिमा की प्रदक्षिणा करते हुए उसकी नज़र वृक्ष के नीचे खड़े कायोत्सर्ग में लीं मुनि हरिकेशबल पर पड़ी| मुनि की कुरूपता, मलिन शरीर एवं वस्त्रों को देखकर राजकुमारी का ह्रदय घृणा से भर गया और उसने मुनि के मुँह पर थूक दिया|
अपने आराध्य मुनि का अपमान यक्ष सहन ना कर सका और वह तुरंत राजकुमारी भद्रा के शरीर में प्रविष्ट हो गया| यक्ष के प्रविष्ट होने से भद्रा कुछ भी बोलती और अनर्गल चेष्ठाएँ करती हुई बेहोश हो गई| उसकी सखियाँ किसी तरह से उसे राजमहल में ले गई|
राजा ने पुत्री के बहुत उपचार करवाए लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ| रजा अपनी पुत्री के जीवन के लिए चिंतित होने लगा| तब राजकुमारी के शरीर में प्रविष्ट यक्ष ने कहा, " राजन ! तुम कितने भी उपचार करवा लो, कोई लाभ नहीं होगा| इसने मेरे मंदिर में ध्यान मग्न एक मुनि का अपमान किया है, इसीलिए मैंने इसकी ये दशा की है| यदि तुम उस महामुनि के साथ इसका विवाह करो तो मैं इसे छोड़ सकता हूँ अन्यथा इसे जीवित नहीं रहने दूंगा|"
पिता ने अपनी पुत्री के प्राणों की खातिर यक्ष की शर्त स्वीकार कर ली| यक्ष राजकुमारी के शरीर से निकल गया और राजकुमारी स्वस्थ हो गई| राजा अपनी पुत्री को लेकर यक्ष के मंदिर में पँहुचा| पिता ने अपनी पुत्री के अपराध के लिए क्षमा मांगी और करबद्ध होकर प्रार्थना की, " भगवन ! इस कन्या ने आपका बहुत बड़ा अपराध किया है इसका प्रायश्चित यही है की आप इससे शादी करें और अपनी दासी के रूप में स्वीकार करें|"
मुनि हरिकेशबल ने कहा, "राजन! न तो इस कन्या ने मेरा कोई अपराध किया है और ना मेरा कोई अपमान ही हुआ है| शादी की बात तो दूर, मैं ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करने वाला हूँ| जहाँ स्त्रियों का आवागमन हो, वहाँ मैं ठहर भी नहीं सकता हूँ| तुम अपनी पुत्री को ले जाओ| मुझे इससे कोई प्रयोजन नहीं है|"
राजा ने कन्या को यक्ष के प्रकोप से मुक्त करने की प्रार्थना की, लेकिन मुनि मौन हो गए| तब यक्ष ने ही कहा, "मुनि तुम्हें स्वीकार नहीं करते तो तुम चली जाओ"
राजा अपनी पुत्री के साथ वापिस लौट आए और मुनि अपनी साधना में वापस प्रवृत्त हो गए|
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