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जीवन दृष्टि

किसी समय राजगृही नगरी में श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था| उसके महामंत्री का नाम अभयकुमार था| एक बार राजगृही में भगवान महावीर का पधारना हुआ| प्रजा के साथ साथ राजा तथा महामंत्री भी उनके दर्शन करने एवं प्रवचन सुनने पंहुचे | उसी राज्य में कालशौकरिक नामक कसाई रहता था, उसे धर्म में बिल्कुल रुचि नहीं थी, लेकिन जब उसने महावीर के आगमन के बारे में सुना तो कौतुहलवश वो भी महावीर का प्रवचन सुनने पँहुच गया|
शांति के साथ महावीर का प्रवचन चल ही रहा था की तभी वहां एक वृद्ध व्यक्ति अचानक सबसे आगे आया और राजा की ओर देख कर बोला “ हे राजन ! जीते रहो|” यह सुनकर सभी अचम्भित हो गए  की यह कैसा असभ्य व्यक्ति है जो बीच प्रवचन में आकर बिना प्रभु को वंदन किये राजा को आशीर्वाद दे रहा है |
सभी ये सोच ही रहे थे की उस वृद्ध ने महावीर की तरफ देखा ओर बोला “तुम मर जाओ “, अब तो सारी सभा तथा राजा को उस वृद्ध की असभ्यता पर बहुत क्रोध आया| अब वृद्ध ने महामंत्री की तरफ देखा और कहा “तुम चाहे   जीओ चाहे मरो” और सबसे अंत में उसने कालशौकरिक की तरफ देखा और कहा “न तुम जीओ न तुम मरो”|  इससे पहले की कोई कुछ समझ पता, इतना कह कर वो वृद्ध वहां से गायब हो गया|
राजा ने महावीर से पुछा “भगवन ! क्या उस वृद्ध की बातों में कोई रहस्य है या फिर बुढ़ापे के कारण उसकी मानसिक स्तिथि सही नहीं थी |”
तब महावीर बोले “हे राजन ! यह वृद्ध व्यक्ति देवता था, तथा उसकी बातों में गूढ़ रहस्य था| जब उस वृद्ध ने तुमसे जीते रहने को कहा तो उसका अभिप्राय था की आज तुम्हारे पास सुख सुविधा व भौतिक विलास के सभी साधन उपलब्ध हैं, तुम जितना चाहो उनका उपभोग कर सकते हो, यह जीवन तुम्हारे लिए अमृत सामान है, परन्तु अच्छे कर्मों के अभाव में इस जीवन के पश्चात आगे घोर नर्क है जहाँ तुम्हे असीमित दुःख भोगने हैं | इसके लिए तुम्हारा जीते रहना ही श्रेष्ट है|”
यह सुनकर राजा बहुत दुखी हुआ परन्तु उसने आगे पूछा “ प्रभु! पर उसने आप जैसे करूणावतार व परम ज्ञानी को मर जाने को क्यों कहा ?”
महावीर बोले “ अपने अन्दर के अंधकार पर विजय प्राप्त करके व्यक्ति अरहंत बनता है परन्तु इस अवस्था में भी शरीर से जुड़े कर्म बाकि रहते हैं जिनके पूर्ण हो जाने पर ही व्यक्ति सिद्ध बन कर मुक्त हो सकता है, मैं अभी उससे मुक्त नहीं हो सका हूँ, अत: वह मेरे वर्तमान जीवन को देह का बन्धन मानता है और मृत्यु को मुक्ति, इसीलिए उसने मुझे मर जाने को कहा| उसका अभिप्राय था की आप कर्मबन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाओ ”
दो प्रश्नों का समाधान करके तीसरे प्रश्न के लिए महावीर बोले “ अभयकुमार इस जीवन में वैसे ही सुख भोग रहे हैं जैसे भ्रमर पुष्पों से रस लेता है, वे संसार सुख का उपभोग करके भी उसमे डूबते नहीं हैं, धर्म के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा है| अत: उनका जब तक जीवन है वो सुखी हैं तथा मरने के बाद भी वो अपने कर्मों के प्रभाव से सुखी रहेंगे| इसलिए उनका जीना या मरना दोनों सामान हैं|”
अंतिम प्रश्न के लिए महावीर बोले “कालशौकरिक वर्तमान जीवन में तो दुःख, दरिद्रता तथा घृणा का जीवन व्यतीत कर रहा है साथ ही वह हिंसक, क्रूर व पापी है जिसके फलस्वरूप मृत्यु के बाद भी वो नर्क में दुःख ही भोगेगा, इस प्रकार न उसका जीना अच्छा है और न ही उसका मरना|”
“इसलिए हे राजन! जो व्यक्ति अपने विवेक की दृष्टि खुली रख कर जीता है उसके दोनों जन्म सुखमय होते हैं तथा वो एक दिन सभी कर्म बन्धनों को तोड़ कर मुक्त हो जाता है”
यह सुनकर सभी भगवन के चरणों में नतमस्तक हो गए | 

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